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कविता

पहाड़ पर प्रेम पहाड़ जैसा ही

राजकुमार कुंभज


पहाड़ पर प्रेम पहाड़ जैसा ही
पहाड़ पर पुस्तकालय, पहाड़ जैसा ही
पहाड़ पर प्रगति, पहाड़ जैसी ही
पहाड़ पर लोकतंत्र, पहाड़ जैसा ही
वहाँ, हमारा क्या ?
हम जो मैदानों में युद्धरत ?
माना कि पहाड़ पर पहाड़ जैसा ही है दुख
लेकिन, दुख मैदानों का भी नहीं कोई चुल्लू भर
पहाड़ पर रखकर लालटेन भूल गए जो दिशा
पूछना चाहिए, पूछना ही चाहिए उनसे
कि रोशनी किस तरफ ?
कविता में कविता की तरह ही होती है जासूसी आजकल
कि इरादतन रोशनी की इरादतन दिशा थी क्या ?
और था इरादतन अँधेरा किस तरफ ?
तब और फिर भी, सब कुछ पहाड़ पर फिर-फिर
हो ही रहा था पहाड़ जैसा
किंतु रखें याद
कि पहाड़ भी काँपता है एक दिन
कहता है कवि
और कहता हूँ मैं भी कि काँपेगा पहाड़ भी
बहेगी नदी भी एक-न-एक दिन
सूरज के ताप से बचा नहीं है कोई
बचेगा नहीं, तो रचेगा नहीं
आलू की तुक भालू से मत मिलाओ
वह तो कालू उस्ताद के तबेले से मिलती है
नैतिकता की नानी
जहाँ भरती है पानी
ईमानदारी जहाँ करती है चौकीदारी
जहाँ राजनीति निभाती है जिम्मेदारी
ऐसे में सिगरेट तक भी सुलगाओं तो लगता है डर
क्यों लगता है कि साहस गया है मर ?
किंतु मैं छोड़कर यह शहर
चले ही जाना चाहता हूँ, उस तरफ
कि जिस तरफ साहस का घर
साहस का घर होता है साहस जैसा ही
जैसे पहाड़ पर प्रेम पहाड़ जैसा ही।

 


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